सुरभि न्यूज़ ब्युरो
नालागढ़, सोलन
समीक्षक : रणजोध सिंह
लाडो हमारे घरों की आन-बान और शान
लाडो शब्द का ध्यान करने मात्र से ही हृदय रोमांचित हो जाता है। आंखों के सामने दौड़ने लगती हैं एक छोटी सी परी, अठखेलियाँ, शरारत या मान-मनुहार करती हुई, जिसकी हर क्रिया से केवल प्रेम झलकता है और जिसे इस जगत के लोग बेटी, परी, या लाडो कहकर पुकारते हैं।
विवेच्य काव्य संग्रह लाडो विश्व की आधी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाली बेटी को ही समर्पित है। साहित्य जगत के उज्ज्वल नक्षत्र रौशन जसवाल ‘विक्षिप्त’ जो हिमाचल प्रदेश उच्चतर शिक्षा विभाग से संयुक्त निदेशक के पद से सेवानिवृत हुए है ने इस भाव युक्त कविता संग्रह लाडो का संपादन किया है। इससे पहले भी वे, ‘अम्मा जो कहती थी,’ ‘पगडंडियां,’ ‘मां जो कहती थी’ और ‘प्रेम पथ के पथिक’ नाम की साझा संग्रहों का संपादन कर चुके है। 160 पृष्ठों के कलेवर में देश भर के 31 कवियों की लगभग 90 कविताओं को इसमें शामिल किया गया है।
इस काव्य संग्रह की बड़ी विशेषता यह है कि साहित्य जगत के नामी-गिरामी साहित्यकारों साथ-साथ उभरते हुए लेखकों को भी स्थान दिया गया है। पुस्तक का आरंभ हिमाचल प्रदेश के वरिष्ठ व प्रसिद्ध साहित्यकारों में डॉ. प्रेमलाल गौतम ‘शिक्षार्थी,’ डॉ. शंकर वासिष्ठ और हरि सिंह तातेर की सारगर्भित टिप्पणियों से हुआ है, जिनमें वैदिक काल से लेकर आज तक नारी जीवन का समस्त इतिहास व गरिमा समाहित है। इस काव्य संग्रह को पढ़कर कहना पड़ेगा कि बेटियां हमारे घरों की आन-बान और शान हैं। बेटियां हैं तो घर, परिवार और समाज है अन्यथा सब कुछ अधुरा है।
आज की बेटी ने अपने को हर क्षेत्र में साबित किया है। अनिल शर्मा नील ने इसी बात का अनुमोदन करते हुए लिखा है:
गृहस्थी हो या फिर हो कार्यालय
अपनी कुशलता से चमकया नाम है।
नभ जल थल में लोहा मनवाया है
लहरा के तिरंगा देश का बढ़ाया मान है।
बेटी तो एक ऐसा पारस है जो लोहे को भी चंदन बना देती है वह जिस जगह पर भी अपने कदम रखती है, वह जगह स्वर्ग सी सुंदर बन जाती है।
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. अशोक विश्वामित्र की इन पंक्तियां पर गोर फरमाएं:
प्रीति, आस्तिकता सुरुचि, शुचिता, सुमति अमृत कनी,
भाव निर्झरणी बही और एक हो बेटी बनी।
पुष्प सी सुरभित, सुकोमल,
स्नेह स्निग्धा त्याग और तप की धनी,
भावना के गुच्छ ये सब एक हो बेटी बनी।
युवा कवि अतुल कुमार लिखते हैं:
मुझे घमंड है
मैंने एक बेटी को है पाया,
पिता होने का सम्मान
उसी ने मुझे दिलाया।
वरिष्ठ साहित्यकार एवं संस्कृत भाषा के विशारद डॉ. प्रेमलाल गौतम ‘शिक्षार्थी’ ने नारी को नवदुर्गा का रूप मानते हुए दो कुलों का प्रकाश लिखा है:
नवदुर्गा का प्रतीक आद्या
दो कुलों का दीप आद्या
अपनी एक अन्य कविता ‘सुकन्या’ में उन्होंने नारी को सृष्टि की परम शक्ति बताते हुए देवी के नौ रूपों का बड़ा ही सुरुचि पूर्ण वर्णन किया है:
‘शैलपुत्री’ आरोग्य दायिनी ‘ब्रह्मचारिणी’ सौभाग्य प्रदा,
‘चन्द्रघंटा’ साहस सौम्यदा, मध्य कुष्मांडा करे धी विकास सदा।
‘स्कंदमाता’ सुखशांति, कष्ट निवारणी ‘कात्यानी’
विकराल काल हरे ‘कालरात्रि’ ‘महागौरी’ पुण्यदायिनी।
‘सिद्धिदात्री’ यह नवमी शक्ति, करती पूर्ण हर मनोकामना
नवदुर्गा आशीष साथ हो, नहीं होता भवरोग सामना।
वरिष्ठ साहित्यकार और यायावर रत्नचंद निर्झर को लगता है कि बेटियां कभी मायके से जुदा नहीं होती इसीलिए वह कहते हैं:
मां ने अभी सहेज कर रखें
बचपन के परिधान, गुड्डे गुडियां
और ढेर सारे खिलौने
बेटी की अनुपस्थिति में बतियाएगी उनके संग
और करेगी उनसे
बेटी जानकर एकालाप
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. शंकर लाल वासिष्ठ ने उसे घर को सौभाग्यशाली कहा है जहां पर बेटी जन्म लेती है। बेटी सिर्फ पति के घर की शोभा नहीं अपितु वह अपना मायका भी अच्छे से संभालती है। उनकी एक कविता का अंश:
मायके की गरिमा तू ससुराल
की अस्मिता है बेटी
विचरती दो परिवारों में
मान मर्यादा बनती है बेटी
संभालती विचारती मुदितमना
कर्तव्य निभाती है बेटी
पावन, निष्कपट स्वाभिमान दो कुलों का है बेटी।
ये हमारे समाज की कितनी बड़ी बिडम्बना है कि एक तरफ तो हम बेटियों को देवी का दर्जा देते हैं मगर फिर भी हम उन्हें वो स्थान और वो सम्मान नहीं दे पायें हैं जिसकी वे हकदार हैं। लगभग प्रत्येक कवि ने बेटियों की वर्तमान स्तिथि पर चिंता व्यक्त की है।
कन्या भ्रूण हत्या पर अपने भाव प्रकट करते हुए डॉ. कौशल्या ठाकुर कहती है:
चलाओ न निहत्थी पर हथियार
लेने दो इसको गर्भनाल से पोषाहार।
होने दो अंग प्रत्यंग विकसित,
निद्रित कली को खोलने दो लोचन द्वार।
वरिष्ठ लेखक हितेंद्र शर्मा ने अपने भाव कुछ इस तरह व्यक्त किये हैं:
दहलीज लांघने से डरती है बेटियां
पिया की प्रिया सखी बनती है बेटियां
मां-बाप की तो सांसों की जान है बेटियां
बाबुल की ऊंची पगड़ी की शान बेटियां
खाली कानून बनाने से या बेटी के पक्ष में नारे लगाने से बात नहीं बनने वाली। निताली चित्रवंशी की कलम लिखती है:
कानून बनने बदलने से
सरकारों के आने जाने से
उनकी बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियानों से
कहाँ बच पा रही हैं बेटियां।
यूं तो नारी के तीन रूपों की कल्पना की गई है लक्ष्मी, दुर्गा (शक्ति) और सरस्वती। मगर हमने नारी को सिर्फ पहले यानि लक्ष्मी रूप तक ही सीमित कर दिया है।
चर्चित साहित्यकार डॉ. नरेंद्र शर्मा की पंक्तियां इसी बात का खुलासा कर रही हैं:
पुरुष प्रधान पितृसत्तात्मक समाज
आदि शक्ति के
तीन रूपों/आयामों
लक्ष्मी, शक्ति और सरस्वती में से
बेटियों को केवल
घर की लक्ष्मी तक ही
सीमित रखता है।
भारतीय समाज बेटियों को लेकर सदैव दोहरी मानसिकता रखता है। इस मर्म को समझा है युवा कवि राजीव डोगरा ने:
हां मैं एक लड़की हूँ
हां मैं वो ही लड़की हूँ
जो अपनी हो तो
चार दीवारी में कैद रखते हो।
किसी और की हो तो
चार दीवारी में भी
नजरे गड़ाए रखते हो
भारत, जिसे विश्वगुरु की संज्ञा दी जाती है, में आज कितना बुरा समय आ गया है कि आज की तिथि में बेटी का पिता होना एक खुशी की बात नहीं अपितु चिंता का विषय बन गया है। युवा कलमकार रविंद्र दत्त जोशी लिखते हैं:
हर पल चिंता की चिता में जीता हूँ
जी हाँ मैं भी एक बेटी का पिता हूँ।
वरिष्ठ साहित्यकार एवं सेवा निवृत पुलिस अधीक्षक सतीश रत्न अपनी चिंता व्यक्त करते हुये सवाल उठाते है कि बेटी को देवी का दर्जा देने वाले लोग असल जीवन में बिलकुल इसके विपरीत है। क्या हम उन्हें इतनी भी स्वंत्रता नहीं दे सकते कि वे निर्भय होकर घर से बाहर जा सके? उनकी एक कविता की बानगी देखिए:
बेटी, बाहर आदमी होंगे
ज़रा संभल के जाना
और हां
दिन छिपने से पहले
घर आ जाना!!
वही नीना शर्मा बेटियों का संरक्षण व संबल बनाने की बात करती हैं:
बेटियां देश का भविष्य होती है अच्छे समाज का भार ढोती है
परी बनाकर उन्हें नाजुक न बनाओ।
उधर देव दत्त शर्मा ने बेटियों को स्पष्ट हिदायत दी है कि अब रावण का अंत करने के लिए राम का इंतज़ार नहीं करना चाहिए:
समय आ गया है जब उन्हें स्वयंसिद्धा होकर रावण का सामना करना होगा। अब खुद ही सुताओं को प्रचंड धनुष उठाना होगा
छोड़ लाज शर्म खुद को ही अब राम बनाना होगा।
पहले भी लड़ी थी सती बनाकर यमराज से तू
फिर तुझे ही अब धनुष संधान से रावण मिटाना होगा।।
साहित्यकार उदय वीर भरद्वाज पूरी पुस्तक में अकेले एक ऐसे कवि है जिन्होंने बेटी के सुखी वैवाहिक हेतु उसे नसीहत की कड़वी मगर सच्ची घुटी पिलाई है। उनकी निम्न पंक्तियों का विचारणीय हैं :
काश
लालच छोड़ सीखती संस्कार
करती न अंतर
मां-बाप सास ससुर में
एक सा मानती
मायका और ससुराल
बेटी बेटी होती
वृद्ध आश्रम न होते
बेटी आदर्श बहू होती
बूढ़े मां-बाप
स्वर्ग सुख भोगते
बना रहता भाई बहनों में प्यार
स्वर्ग से सुंदर होता संसार
कुल मिलाकर इस कविता संग्रह में बेटी से संबंधित कोई ऐसा पहलू नहीं है जिस पर चर्चा नहीं की गई हो। संग्रह की अंतिम कविता ‘बेटियां कभी उदास नहीं होती’ इस संग्रह के संपादक रौशन जसवाल ‘विक्षिप्त’ द्वारा लिखी गई है जिससे उन्होंने स्वयं भी यह स्वीकार किया है कि आज की परिस्थितियों में बेटियां सुरक्षित नहीं है। लेकिन वे आशावान है कि एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जब यह संसार बेटियों की शक्ति को पहचानेगा और वे स्वतंत्रता व सम्मानपूर्वक अपना जीवन-यापन कर सकेगीं।
एक ही विषय पर भिन्न कवियों को पढ़ना न केवल मन को रोमांचित करता है अपितु उस विषय से संबंधित हर पहलू का सूक्ष्म विश्लेषण भी सहज ही हो जाता है। इस दृष्टि से लाडो एक सफल पुस्तक है और संग्रह करने योग्य हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि कोई भी व्यक्ति जो इस संग्रह को दिल से पड़ेगा, बेटियों के प्रति निश्चित ही उसकी सोच बदलेगी और वह बेटी के सपनों में कभी बाधक नहीं बनेगा। मुख्य संपादक जसवाल व उनकी संपादकीय टीम और संकलित लेखकों को बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं।
सम्पादक एवं प्रकाशक : रौशन जसवाल ‘विक्षिप्त’
177/10,शांतकंवल कुंज,टीवी टावर के समीप,
टैंक रोड ,डाक घर गलानग, सोलन, हि.प्र.- 173212 मोबाइल – 9817047192
समीक्षक : रणजोध सिंह
सन विला, फ्रेंड्स कॉलोनी, नालागढ़,
जिला सोलन हिमाचल प्रदेश-174101
मोबाइल 941815871