सुरभि न्यूज़
कुल्लू◆ विजय विशाल
अखबार में छपी खबर के मुताबिक इस वर्ष के पहले चार महीनों में चवालीस(44) लाख से ज्यादा पर्यटक हिमाचल में आये हैं। यह आंकड़ा जनवरी से अप्रैल तक का है जबकि गर्मियों का सीजन मई माह से शुरू होता है, जिसमें पर्यटकों का यह आंकड़ा कई गुणा बढ़ सकता है। यानी सहतर लाख की आबादी वाले इस प्रदेश में हर माह औसतन बारह लाख पर्यटक पँहुच रहे हैं।
हो सकता है मेरी समझ कम हो पर जो मैंने महसूस किया इनमें से अधिकतर भारतीय पर्यटकों का पर्यटन के प्रति नजरिया प्राकृतिक सौंदर्य के आनन्द से हटकर खाने-पीने और मौज-मस्ती का होता है। वाहनों की तेज रफ़्तार बताती है कि इन्हें अपनी डेस्टिनेशन यानी होटल में पँहुचने की कितनी जल्दी होती है। चलती गाड़ियों से पानी की खाली बोतलें, पैकेटबंद खाने के लिफाफे, डिस्पोजेबल कप, गिलास, थालियां फैंकना इनके शगल में शामिल रहता है।
प्राकृतिक संसाधनों, ट्रैफिक, स्थानीय पर्यावरण और रोज़मर्रा के जीवन की ऐसी-तैसी करते, मोबाइल-कैमरों से लैस ये पर्यटक गैर जिम्मेदाराना व्यवहार करते, रीलें बनाते हर कहीं नजर आते हैं।
यह सच है कि पर्यटकों की संख्या बढ़ने से किसी भी जगह की अर्थव्यवस्था चमकती दिखाई देने लगती है लेकिन वहां रहने वाले ज़्यादातर लोग इस लाभ से वंचित रहते हैं। पैसा उसी वर्ग के पास आता है जो पहले से ही संसाधनों पर कब्ज़ा जमाये बैठा है साधारण मनुष्य का जीवन बदतर होता जाता है।
ऐसा नहीं है कि गैर जिम्मेदाराना पर्यटन की यह समस्या सिर्फ अपने यहां ही है। अपने पड़ोसी राज्य उत्तराखंड भी इससे जूझ रहा है। वहां धार्मिक पर्यटन के नाम पर यह सब हो रहा है।
खबरों के मुताबिक दुनिया के कई देशों के लोग अब इस पर्यटन से तंग आ चुके हैं। उन्हें लगता है कि उनके हिस्से के जरूरी प्राकृतिक संसाधनों पर भी ये पर्यटक कब्जा किये जा रहे हैं।
सैलानियों की लगातार बढ़ती संख्या से आजिज़ आ चुके बार्सीलोना के निवासियों ने पिछले साल एक अनूठा विरोध प्रदर्शन किया। कोई तीन हज़ार स्थानीय लोग पानी की पिचकारी वाली बंदूकें लेकर सड़कों पर निकले और जहाँ-जहाँ पर्यटक दिखाई दिए, उन्होंने उन पर पानी की बौछार की। टूरिस्ट बसों को, रेस्तराओं में खाना खाते और शहर की मशहूर जगहों पर मौजूद पर्यटकों को ‘अपने घर वापस जाओ’ लिखे बैनर-पोस्टर दिखाए गए और इन पिचकारी बंदूकों से ‘हमला’ किया गया।
बार्सीलोना में हुए विरोध-प्रदर्शन को दुनिया भर में नोटिस किया गया और अनेक देशों में सैलानियों की तादाद पर काबू करने के लिए तरह-तरह की नीतियाँ बनीं – जापान, इटली, इंडोनेशिया, इंग्लैण्ड और स्कॉटलैंड जैसे तमाम देशों ने पर्यटन-टैक्स को दोगुना-तिगुना कर दिया है। नेपाल ने भी पीक-सीज़न में एवरेस्ट की तरफ जाने वाले यात्रियों से ली जाने वाली फीस को छत्तीस परसेंट बढ़ा दिया है। बार्सीलोना नगरपालिका ने 2028 के बाद से एयर बीएनबी मॉडल पर बैन लगाने का प्रस्ताव पारित कर दिया है।
अपने यहाँ भी आस-पास के पहाड़ों में स्थित मंदिरों में दूर-दूर से आने वाले श्रद्धालुओं के जमावड़े के चलते वहां पहुंचाने वाली तमाम सड़कें अभूतपूर्व जाम और अव्यवस्था से जूझ रही हैं। कुछ वर्ष पहले तक ये श्रद्धा के केंद्र सड़क सुविधा से दूर थे तथा वहां तक लोग दस-बारह किलोमीटर पैदल चल कर पहुंचते थे। मगर अब विकास के नाम पर गाड़ी योग्य सम्पर्क मार्ग बनने से श्रद्धालुओं की संख्या में अभूतपूर्व इज़ाफ़ा देखने को मिल रहा है। परिणामस्वरूप पिछले कुछ सालों से उन रास्ते से की जाने वाली यात्रा अव्यवस्थाओं के चलते सहूलियत न होकर और भी दुरूह हो गई हैं। घण्टों जाम में लोग फंसे रहते हैं।
जो छोटी सी ग्रामीण बस्तियां पहले सौ-दो सौ लोगों का घर होती थी, उसमें हर महीने हजारों की तादाद में पर्यटक पहुँच रहे हैं। स्थानीय लोगों के जरूरी प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग करते हुए ये पर्यटक टट्टी-पेशाब, प्लास्टिक, गन्दगी और असंवेदनशीलता की ऐसी गाद छोड़ कर जा रहे हैं।जिसके बारे में अभी कोई नहीं सोच रहा। योजना बनाने वालों का ध्यान सिर्फ इस बात पर है कि सीमित धरती और हवा में जितनी संभव हो उतनी पार्किंग पैदा कर दी जाए। सड़क जाम न हो, इसके लिए हर साल स्थानीय स्तर पर कमेटियां बनती हैं, जिनकी पहली मांग सरकार से यही होती है कि जंगलों को काट कर पहाड़ों की इन सड़कों को और चौड़ा किया जाए। प्राकृतिक संसाधनों को नोच खाने की इस प्रवृत्ति के पीछे उपभोक्तावाद और बाजारवाद धार्मिक आस्था का छीना पर्दा लिए, पैसे के दम पर पीछे खड़ा है।
और एक हम हैं कि अपने हिस्से का साफ़ पानी, शुद्ध हवा पर्यटन के इस कोलाहल में खुशी-खुशी लुटाए जा रहे हैं। अफसरशाही के बल पर चलती सरकारें अपने-अपने शासकीय समय में इस शॉर्ट टर्म गेन को ही बेरोजगारी से लड़ने का साधन और आर्थिक विकास के रूप में प्रचारित करने में जुटी हैं। शिमला, कुल्लु-मनाली व धर्मशाला जैसे पर्यटक स्थलों को कंक्रीट के जंगलों में तब्दील कर देने व देश के बड़े पूंजीपतियों, राजनेताओं, फिल्मी सितारों आदी के हवाले कर देने के बाद अब नए व अछूते स्थलों का शिकार करने को बिचौलिए पहाड़ों की ओर निकल पड़े हैं।
जिस ठोस व दीर्घकालिक पर्यटन, परिवहन व वन नीति की दरकार इस प्रदेश को है या जिसकी अपेक्षा सरकार से की जानी चाहिए राजनीतिक तौर से उसका अभाव लम्बे समय से महसूस किया जा सकता है। कुछ स्वयंसेवी व स्वैच्छिक संगठन प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में पर्यावरण संरक्षण के प्रति अच्छा कार्य कर रहे हैं परन्तु विकास के नाम पर बड़े पैमाने में होने वाले उत्खनन के आगे उनके यह प्रयास ऊँट के मुँह में जीरे के समान हैं।
इस अनियंत्रित, बेलगाम व गैर जिम्मेदाराना पर्यटन से अपने हिस्से की धूप व हवा-पानी हमें स्वयं ही बचाना होगा।