अंतरराष्ट्रीय लोकनृत्य-उत्सव कुल्लू दशहरा की धार्मिक मान्यता

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सुरभि न्यूज़ कुल्लू। ऐतिहासिक ढालपुर के मैदान में सात दिनों तक मनाये जाने वाले अंतरराष्ट्रीय लोकनृत्य-उत्सव कुल्लू दशहरा की धार्मिक मान्यताओ आरंभिक परंपराओं, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, पर्यटन,  व्यापार व मनोरंजन की दृष्टि से अद्वितीय पहचान है। दशहरा उत्सव स्थानीय लोगों में विदादशमी (दशमी की विदाई) के नाम से प्रचलित है। कुल्लू के दशहरा-उत्सव का उदय एक रोचक तथ्य के आधार पर हुआ और तभी से यहां दशहरे की अनेक रस्में निभाई जाती है। दशहरा उत्सव को मुख्यतः तीन भागों ठाकर निकलना, मुहल्ला तथा लंका दहन में बांटा गया है। कुल्लू दशहरा की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि श्री रघुनाथ रामचंद्र जी के अयोध्या से कुल्लू आगमन पर आधारित है। इस संबंध में प्रचलित जनश्रुति के अनुसार कुल्लू नरेश जगत सिंह (1637-1662) के शासन काल की घटना है। एक बार किसी व्यक्ति ने राजा जगत सिंह को एक झूठी सूचना दी कि पार्वती घाटी के टिपरी गांव में दुर्गादत्त नामक ब्राह्मण के पास एक पत्था (लगभग डेढ़ किलो) सुच्चे मोती हैं। उस व्यक्ति ने राजा को उकसाया कि महाराज! जो चीज राजमहल में होनी चाहिए, ब्राह्मण के पास उसका क्या प्रयोजन राजा को बात जंच गई। इन्हीं दिनों निर्धारित मणिकर्ण यात्रा पर जाते राजा ने दुर्गादत्त ब्राह्मण को शरशाड़ी में बुलाकर कहा कि मणिकर्ण से लौटते हुए वह उसे मोती सौंप दें। ब्राह्मण ने मोती न होने की बात कही तो राजा ने उसकी बात को अविश्वसनीय माना और सख्ती से मोती सौंप देने का हुकम दिया। वास्तव में ब्राह्मण के पास मोती नहीं थे। राजा के रूख को देख कर उसने समझ लिया कि वह उसको और परिवार को झूठी बात पर अकारण पीडि़त करेगा। इस पर विचार करके ब्राह्मण ने राजा से किसी प्रकार की क्रूर यातना भोगने की अपेक्षा अपने परिवार सहित अग्नि में होम करना उचित समझा। उसने ब्रह्म शक्ति से परिवार को अवचेतन कर घर के भीतर रखा और बाहर से घर को आग लगा दी। जब राजा टिपरी पहुंचा तो वह अपने शरीर के टुकड़े स्वयं कुल्हाड़ी से काट-काट कर ले राजा पत्था मोती कहते हुए अग्नि की भेंट कर रहा था। यह दृश्य देखकर राजा किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया और पश्चाताप की आग में झुलसता हुआ मकड़ाहर पहुंचा। गौर रहे मकड़ाहर भी कभी राजा रूपी की राजधानी रही है। उन दिनों नग्गर के समीप झीड़ी में बाबा पौहारी रहते थे। पौहारी बाबा आहार में प्रायः दूध ही ग्रहण करते थे। इसीलिए उन्हें पेयहारी कहा जाने लगा यही पेयहारी शब्द ध्वनि परिवर्तन से पौहारी बना। यह बाबा अलौकिक सिद्धिसम्पन्न वैष्णव संत थे। राजा ने अपने गुरू तारानाथ द्वारा बताए उपायों से कोई भला न होने पर इनसे अपने कष्ट निवारण की प्रार्थना की। पौहारी बाबा ने राजा की मानसिक अस्वस्थता अपनी सिद्धि के बल पर दूर की और शारीरिक कुष्ठ रोग के निवारण एवं ब्रह्म हत्या से मुक्ति के लिये उपाय बताया कि अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर में भगवान राम द्वारा अपने जीवन काल में स्वयं बनवायी गई राम और सीता की मूर्तियां हैं। यदि राजा उन मूर्तियों को राजधानी लाकर सम्मान पूर्वक प्रतिष्ठित करें तथा राजपाठ रघुनाथ को समर्पित कर स्वयं उनके प्रतिनिधि के रूप में राजकाज का संचालन करें तो न केवल राजा की आधि-व्याधि दूर होगी अपितु इससे राज्य में सुख शान्ति का साम्राज्य स्थापित होगा। राजा ने आदर पूर्वक बाबा की सलाह मानते हुए निवेदन किया कि ये मूर्तियां अयोध्या से यहां कैसे लाई जो सकती हैं तब राजा ने सुकेत राज्य से अपने शिष्य दामोदर को बुलाकर राजा की समस्या का समाधान किया। दामोदर दास गुटका सिद्धि से मनुष्य तत्काल एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंच सकता है। दामोदर दास गुटका सिद्धि के चमत्कार से अयोध्या पहुंच गया। वहां पुजारियों से घुलमिल कर लगभग छह मास तक त्रेतानाथ मंदिर में सेवा कार्य करता रहा। एक दिन अवसर पा कर उसने राम-सीता की मूर्ति उठाई और गुटका सिद्धि से हरिद्वार पहुंचा। त्रेतानाथ मंदिर का जोधावर नामक पुजारी भी गुटका सिद्धि जानता था। मुर्तियां ले जाने का पता लगने पर वह भी सिद्धि के सामर्थ्य से अयोध्या से चला और हरिद्वार में उसने दामोदर दास को पूजा करते हुए पकड़ लिया। जब दामोदर दास को मूर्तियां चोरी के लिए प्रताडि़त किया गया तो उसने सारी वस्तुस्थिति स्पष्ट कर दी। जोधावर पुजारी  ने कहा कि वस्तुस्थिति जो भी हो तुम मूर्तियां नहीं ले जा सकते। वह उन्हें उठाकर अयोध्या वापिस ले जाने लगा। परंतु वह परेशान हो गया कि जब वह अयोध्या की ओर जान लगे तो आँखों के सामने अंधेरा छा जाए। यदि कुल्लू की ओर राह ले तो दृष्टि प्रकाशमय हो जाती। पुजारी समझ गया कि यह घटनाक्रम प्रभु की प्रबल इच्छा से हो रहा है। उसने मूर्तियां दामोदर दास को सौंप दी और दामोदर दास मूर्तियाँ कुल्लू ले आया। राजा ने अपनी मनोव्यथा सत्कार करके राजमहल में विधि-विधान से इनकी स्थापना की और राज पाठ इन्हें सौंप कर स्वयं प्रतिनिधि सेवक के रूप में कार्य करने लगे। राजा पूर्णतयः रोग मूक्त हो गया और उसके राज्य में भी सुख समृद्धि का विस्तार हुआ। तभी से मणीकर्ण, नगर, हरिपुर, वशिष्ठ तत्पश्चात कुल्लू के दशहरे का शुभारंभ हुआ और आज भी इन स्थानों पर दशहरे की परंपरा जीवित हैं।

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