बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष : भगवान बुद्ध ने दुनिया को करुणा और सहिष्णुता के मार्ग पर चलना सिखाया

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सुरभि न्यूज़, बरोट

अभिषेक कुमार

आज से लगभग 25सौ वर्ष पूर्व शाक्यवंशी राज कुमार सिद्धार्थ का ग्रह त्याग ‘महाभिनिष्क्रम’ सम्पूर्ण मानव सभ्यता के इतिहास की सबसे अनोखी घटना के रूप में याद किया जाता है। यह महाभिनिष्क्रम स्वार्थ हित से संचालित न होकर प्राणी मात्र के जीवन के वास्तविक सत्य की तलाश के लिए किया जाता था। अपनी यात्रा के दौरान उन्हें विभिन्न भौतिक एवं शारीरिक झंझावटों को भुगतना पड़ा। मित्रों के तिरस्कार और मार जैसे दुरूह शत्रु का सामना करना पड़ा, मगर उनका महान उद्देश्य मेरु पर्वत की तरह दृढ़ एवं अविचल रहा।

अंततः छः वर्ष की कठोर साधना के पश्चात उरूवेला में बैशाख पूर्णिमा के दिन निरंजना नदी के तट पर उन्हें जीवन के सर्वोच्च ज्ञान का बोध हुआ। वह बुद्ध कहलाए और वह स्थान बोधगया बन गया। बोद्ध धर्म में इस दिवस को ही बुद्ध पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। बुद्धत्व की प्राप्ति के पश्चात बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय के लिए काश के निकट मृगदाव (वर्तमान में सारनाथ) में उन्हें प्रथम धर्मोपदेश दिया जिसे “धर्मचक्र प्रवर्तन” कहा गया, जिसका अर्थ था ज्ञान का चक्र चलायमान हो गया। ज्ञान के इस चक्र के मूल मे संसार के समस्त व्यक्तियो को दुःख से निवृत कर निवारण की ओर ले जाना शामिल था।

हालांकि बुद्ध द्वारा प्रवर्तित ज्ञान को मात्र दर्शन की परिधि तक सीमित करके देखा जाता रहा है, जिसने इसके व्यवहार के अनुप्रयोग को परिसिमित कर दिया। यद्यपि इसका व्यावहारिक अनुप्रयोग सम्पूर्ण जगत के लिए उपयोगी साबित हो सकता है। आज के इस प्रतिस्पर्धी समाज में युवाओं को विभिन्न प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। उनके व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में चतुर्दिक अराजकता का माहौल है। वह वैचारिक शून्यता एवं दुष्प्रवतियों के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। चिंता, अवसाद और निराशा के वातावरण ने उसका जीवन पूरी तरह से अंधकार सा बना दिया है। आत्म ह्त्या कि निरंतर बढ़ती वारदातें इसका जीता-जागता परिणाम है।

इस प्रकार की गंभीर स्थिति में बुद्ध की शिक्षा उनका मार्ग दर्शन पूर्ण रूप से कर सकती है। प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत अर्थात संसार की सभी वस्तुएँ अन्योन्याश्रित है जिसके अंतर्गत कारण को समाप्त कर देने से परिणाम को पूरी तरह से रोका जाता है और यह महत्वपूर्ण साबित भी हो सकता है। इसी प्रकार अनित्यवाद के सिद्धांत भी युवाओं के लिए लाभकारी साबित हो सकते हैं। जो यह साबित करता है कि संसार सतत परिवर्तनमान है। स्थितियों में परिवर्तन आना अपरिहार्य है। युवा इस ज्ञान के माध्यम  से अपनी निराशा एवं चिंता के कारणों को समाप्त करके अथवा धैर्य का अनुपालन कर एक बार पुनः खुशहाल जीवन व्यतीत कर् सकते हैं।

वैश्विकतापन जैसी  समस्या जो समाज में सम्पूर्ण विश्व के समक्ष एक विकराल रूप धारण कर चुकी है, जिसका समाधान भी प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धांत के माध्यम से संभव है। उदाहरण स्वरूप जीवन शैली में सबेदनशीलता, प्रकृति   प्रति सहिष्णुता और प्लास्टिक के उपयोग पर प्रतिबन्ध जैसे आसान कदम इस सन्दर्भ में रामवाण साबित हो सकते हैं। उपभोगतावादी मानसिकता के प्रभाव में येन केन प्रकरेण लाभ की एक विचित्र संस्कृति का उदय हो रहा है।

प्रत्येक व्यक्ति के मन में नीजि स्वार्थ व महत्वाकांक्षाओं की संभावनाएं प्रभावी हो रही है, साथ ही समाज में भ्रष्टाचार की जड़े भी मजबूत हो रही है। संभव है कि अष्टांगिक मार्ग के सिद्धांतों का प्रसार इस संबंध में उपयोगी साबित हो सकता है। सम्यक दृष्टि, सम्यक कर्म, सम्यक आजीविका एवं सम्यक व्यायाम की शिक्षाएं समाज में विलुप्त हो रही है। सामाजिक एवं व्यासायिक नैतिकता को एक बार पुनः स्थापित करने में सफल हो सकती है। यहां तक की अन्तराष्ट्रीय सम्बन्धों को भी बुद्ध शिक्षाओं के प्रतिबिंब में देखा जा सकता है।

माध्यम मार्ग जो बुद्ध की शिक्षाओं का एक महत्वपूर्ण घटक है का प्रभाव जीवन के दैनिक निर्णयों के साथ–साथ भारत की विदेशी नीति में भी देखा जा सकता है। पंचशील, वैसुदेव, कुटुम्बकम और गुटनिरपेक्षता की नीति माध्यम मार्ग की अवधारणा पर ही आधारित है। बुद्ध के अनित्याबाद के सिद्धांत के क्रम में देखा जाए तो अंतर्राष्ट्रीय घटना क्रम भी सदैव परिवर्तनशील रहते हैं। कभी न डूबने वाले यूनियन जैक का सूर्य भी डूबा, विशालकाय सोवियत संघ का पतन भी हुआ, कल के कट्टर शत्रु जापान और अमेरिका आज के परम मित्र बन चुके हैं तो संभव है कि आज के परम शत्रु भारत–पाकिस्तान या इजरायल और फिलिस्तीन कल के मित्र हो जाए आर्थात अंतर्राष्ट्रीय संबंधो में न तो कोई स्थाई मित्र होता है और न ही शत्रु। यहां निरंतर नवीन संभावनाएं व्याप्त रहती है। इसलिए अंतर्राष्ट्रीय संबंधो का संचालन सदैव राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखकर करना चाहिए।

बुद्ध की शिक्षाएं पूर्व के तरह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। ये शिक्षा देश, काल और अंतराल से निरपेक्ष है। अशोक से लेकर एलेन गिब्सन, कुबलई खान से लेकर महात्मा गांधी एवं दलाई लामा जैसे न जाने कितने सिद्धार्थो ने इन शिक्षाओं का व्यावहारिक अनुप्रयोग कर एक मंगलकारी समाज को स्थापित करने का प्रयास किया। आज का मानव वर्तमान परिवेश मे रक्षक के स्थान पर भक्षक न बन जाए इसलिए आवश्यक है कि गौतम बुद्ध के उपदेशों को अपनाने पर एक बार पुनः बल दिया जाए। अप्प दीपों भव की परिकल्पना को स्वीकार करना आज की महती आवश्यकता है।

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