हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के सरकारी भूमि पर से फरवरी 2026 तक अतिक्रमण हटाए जाने के आदेश को लेकर आज सिविल सोसाइटी, मानवाधिकार संगठनों और बुद्धिजीवियों के बीच गहन व गम्भीर बहस चरम की ओर बढ़ रही है— कुछ लोग हर तरह की सरकारी भूमि पर अतिक्रमण के पक्ष में हैं तो अन्य पुष्ट व पुख्ता तर्कों के आधार पर अतिक्रमण हटाए जाने की वकालत कर रहे हैं। एक पक्ष उन लोगों पर उंगली उठाता है जिन्होंने सिल्वर स्प्रूस, देवदार व सदाबहार जंगल काटकर सेब के बाग बगीचे व उद्योग लगाए और पारिस्थितिकी व पर्यावरणीय संतुलन बिगाड़ा, जबकि दूसरा पक्ष उन परिवारों की पीड़ा का हवाला देता है जिनके पूर्वजों ने अपनी जमीनें और मकान देश को अन्न-सुरक्षा व ऊर्जा देने के लिए कुर्बान कर दिए थे, लेकिन बदले में अपमान और उजाड़ मिली।
दोनों पक्षों के तर्क अपने-अपने स्थान पर वज़नदार हैं। लेकिन इतिहास यह गवाही देता है कि जिनकी कुर्बानी से देश भूखमरी से उबरा, जिनकी ज़मीनों से पंजाब-हरियाणा दिल्ली राजस्थान की नहरें बहीं और घर रोशन हुए—उनकी पीढ़ियों को दर-दर की ठोकरें देना किसी भी लोकतांत्रिक समाज और न्यायपालिका के गौरव पर प्रश्नचिह्न है।
अतिक्रमण को नियमित करने के पक्षधरों को तर्क है कि दशकों पहले, जब देश भुखमरी की दहलीज़ पर खड़ा था, भारत को पी.एल. 480 के तहत अमेरिका से गेहूँ माँगने की शर्मिंदगी झेलने पड़ रही थी और उत्तर भारत की अंधेरी बस्तियों को रोशन करने के लिए हिमाचल प्रदेश के पौंग बांध में डूबी हलदूण घाटी और भाखड़ा की चौंटा घाटी, घुंगर और सांडू जैसी उपजाऊ भूमि कुर्बान कर दी गई। लाखों परिवारों ने अपने आलीशान मकानों और उपजाऊ खेतों को डुबोकर, प्रशासकीय आश्वासनों पर विश्वास करते हुए जंगलों में झुग्गियाँ और अस्थायी मकान बना लिए। यह त्याग महज़ भूमि का नहीं, बल्कि जीवन और भविष्य का था।
वक्त गुज़रा, पीढ़ियाँ बदलीं, लेकिन पीड़ा वहीं ठहरी रही। विस्थापन की कहानियाँ लोकगीतों में ढलीं, आँसुओं में बहीं, और संघर्ष की छाप बनकर पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहीं। अब, हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट का हालिया आदेश, जो सरकारी भूमि पर सभी प्रकार के कब्ज़ों को हटाने की ओर है, इन परिवारों की बची-खुची आस पर भी चोट करता दिखाई देता है। आदेश के तहत उनके घरों की बिजली-पानी काटने और मकान-दुकान ज़मीन से उखाड़ फेंकने का रास्ता साफ़ किया जा रहा है।
विडम्बना यह है कि जिन पूर्वजों ने अपनी ज़मीनें और घर देश की अन्न सुरक्षा और उत्तर भारत की सिंचाई व रोशनी के लिए न्यौछावर किए, उन्हीं की संतानें आज अंधकार और भूख-प्यास में धकेले जाने को अभिशप्त हैं। यह सवाल समय और समाज दोनों से है कि क्या यह न्याय है, या त्याग के बदले अपमान की नई परिभाषा?
भाखड़ा बाँध और पौंग बाँध, दोनों ने मिलकर 41,777 परिवारों को उजाड़ा। आंकड़े बताते हैं कि पौंग बांध से 30,000 और भाखड़ा से 11,777 परिवारों की दुनिया जलमग्न हुई। बदले में वादे मिले, पुनर्वास के कागज़ी नक्शे बने, पर ज़मीनी हक़ीक़त कहीं पीछे छूट गई। पौंग के 30,000 परिवारों में से महज़ 4,924 को पुनर्वास मिला, भाखड़ा के 3,600 परिवारों में से 740 को हरियाणा से लौटना पड़ा। आज भी लगभग 33,993 परिवार न्याय की बाट जोह रहे हैं।
यह वे 33,993 परिवार हैं जिन्होंने मजबूरी में सरकारी भूमि पर घर बनाए और जिन्हें तत्कालीन शासन व प्रशासन ने वहां बसने की मौखिक सहमति दी। इनमें वे भी हैं जिनके पूर्वज मज़दूर या कारीगर थे, जिन्होंने अपने खून-पसीने से बंजर ज़मीन को उपजाऊ खेतों में बदला, लेकिन कागज़ों में उनके नाम तक दर्ज नहीं हुए।
कुछ हजारों परिवार ऐसे भी हैं जिन्हें 1952 में “ग्रो मोर फूड नीति” के तहत फौज के लोगों, विडोज व अन्य लोगों को नौतोड़ दी गई जिसमें कुछ मालिक बन गए लेकिन कुछ भूमि को कास्त कर रहे हैं लेकिन भूमि उनके नाम नहीं है। इसमें एक वर्ग और है जिन्हें लैंडलैस मान कर दस कनाल जमीन पूरी की थी इस वर्ग में भी कई लोगों के नाम यह जमीन नाम नहीं चढ़ी लेकिन कब्जा इनका है। न्याय का तकाज़ा है कि इन्हें उनका हक़ मिले।
हालाँकि, इस सच के साथ यह भी उतना ही ज़रूरी है कि विस्थापितों की आड़ लेकर सरकारी ज़मीनों पर बड़े पैमाने पर कब्ज़ा जमाने वालों को संरक्षण न मिले। असली कुर्बानी देने वालों और अतिक्रमणवाद में अंतर करना समय की मांग है।











