पुस्तक समीक्षा: आओ खो जाएं, लेखिका: कविता सिसोदिया, समीक्षक: रवि कुमार सांख्यान

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सुरभि न्यूज़ 

रवि कुमार सांख्यान, बिलासपुर 

अपने जीवन के 65 वसंत देख चुके कवयित्री कविता सिसोदिया अपने सेवाकाल के दौरान भी साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय रही हैं। पत्र- पत्रिकाओं में भी उनकी रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं।

समीक्षित काव्य संग्रह आओ खो जाएं कविता सिसोदिया की प्रथम प्रकाशित कृति है जिसमें उन्होंने प्रेरणा स्रोत रचनाकारों को समर्पित किया है।
69 कविताओं के इंद्रधनुषी गुलदस्ते से सजी इस कृति में कवयित्री जीवन के उत्तरदायित्वों को बखूबी निभाने के साथ-साथ चंचल मन की गति से पल भर में जीवन के किसी भी क्षेत्र में सजी इस वाटिका से मधुमासी की तरह मकरंद चुन-चुन लाकर शहद सदृश्य शब्दों का मनमोहक ताना-बाना बुनने में दक्ष प्रतीत होती है।

मन की बात में उन्होंने सादा जीवन उच्च विचार के आदर्शों को अपनाते हुए आध्यात्मिकता की डगर पर चलने का आह्वान किया है तथा पुस्तक प्रकाशन में मार्गदर्शन के लिए वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार जयकुमार का आभार जताया है।

प्रथम कविता का श्री गणेश सभी देवी देवताओं को प्रणाम करने अपने पुरातन सांस्कृतिक समृद्ध परंपरा का निर्वहन करते हुए यूं किया है

प्रथम प्रणाम श्री गणेश जी को,
जिन्होंने यह शुभ कार्य कराया।
प्रणाम कुलदेवी श्री नैना माता जी को ,
सुख -दुःख में साथ निभाया।

सुनहरी भोर कविता में प्रकृति द्वारा जड़ चेतन के लिए जुटाए गए अमूल्य भंडार का समुचित वर्णन किया है।

हरी घास पर झिलमिलाए ओस की बूंदे,
खोए ध्यान में योगी नयन अपने मूंदे,
हो रहा अंतरात्मा में यह एहसास ,
जैसे परमपिता परमेश्वर हो हमारे पास।

शरद ऋतु के आगमन पर कुछ यूं फरमाया है।

मंद मंद बहता शीतल समीर, ना जाने कहां से आकर, कोमलता से चला गया तन- मन,
चुपके से चुनरिया हटाकर,
छेड़ गया मधुर राग,
रोमांचित हो गया रोम-रोम।

भौतिक सुखों की चकाचौंध से भ्रमित मानव द्वारा नैतिक मूल्यों, आदर्शों को तिलांजलि देते देख अंतर्मन से निकली पुकार को मैंने सोचा ना था
कविता में कुछ कहा है।

इंसान का इंसान से रिश्ता, धीरे-धीरे टूट जाएगा,
लाशों का कफन ओढ़ कर भी ,
कभी कोई इंसान सोता न था ।

मकान है पर घर नहीं कविता में यह पंक्तियां बहुत कुछ कह जाती है : –

ना जाने क्यों आज हम सब, इतने भाव शून्य और एकल हो गए ,
मकानों की भीड़ में घर ना जाने कहां खो गए।

स्याह होती सिंदूरी शाम में कविता ब्यक्त किया है  : –

कहती दिवाकर को प्यारी अलविदा ,
सबको कुछ भगाती दौड़ाती,
हर दिवस की होती है एक शाम ,
सबको जीवन का गणित सिखाती।

आओ खो जाए कविता में कुछ इस प्रकार फरमाया गया है ।
मंद -मंद बहता समीर हो
इन्दु किरणों संग खेलता सरित नीर हो,
गहन शांति और सुकून हो,
स्वंय में डूब जाने का जुनून हो।

गौरैया चिड़िया के अस्तित्व पर मंडरा रहे खतरे पर व्यथित कवित्री की पुकार सुनें ।

नहीं होती कोई चीं- चीं,
तू न जाने कहां खो गई,
क्यों हमारी नजरों से तू,
इस तरह ओझल हो गई ?

वर्षा रानी के स्वागत में काव्यांजलि लिये खड़ी कवयित्री के उद्गार तो सुनो।

सावन के झूलों की चली बयार ,
झूले सखियां गाएं मेघ मल्हार। 

सूना पनघट में पनघट की परंपरा के खो जाने पर कुछ यूं फरमाया है।

अजनबी पथिक कोई जब आते,
प्यासे -थके पनघट पर विश्राम करते,
प्यार से जल उन्हें पिलाने को,
शीतल जल की गागर थे भरते।

अपने सांस्कृतिक लोक संस्कृति के प्रतीक मेलों की संस्कृति को बढ़ावा देते हुए लिखी यह लाइनें ध्यान आकृष्ट करती हैं ।

त्योहार और मेले दिलाते हमें,

पुरानी संस्कृति का एहसास,

जब प्रतिदिन वही दिनचर्या,
थके बुझे चेहरे होते उदास।

यादें स्कूल की कविता में बाल मन से वर्तमान तक शब्दसेतु बनाते हुए कहा गया है।

आज इस भोले से चेहरे को, समय के थपेड़ों ने बदल दिया कहते अजनबी हमें
अहंकारी, कठोर
समय से समझौता
हमने कर लिया।

भारतीय नारी के शौर्य पराक्रम को दर्शाती यह पंक्तियां भी ध्यान चाहती हैं।

मार्ग में आए जितनी भी बाधाएं,
मुस्कुरा कर उन्हें हटाती हूं ,
मैं हूं सती सावित्री सीता महाकाल को भी हराती हूं ।

जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि अवधारणा को जताती ये आंखें कविता की पंक्तियां तो सुनो ।
यें आंखें भी बड़ी अजीब होती हैं ।
भावनाओं के कितने करीब होती हैं ।
कभी झुक जाती शर्म से, आश्चर्य से कभी फैल जाती है।

वैश्विक महामारी कोरोना के खौफ को याद दिलाती यह लाइने ध्यान चाहती हैं :-

सुने हो गए पर्यटन स्थल, सुने हैं गलियां माल -बाजार,
कोरोना के खौफ से, आज हो गए लाचार|

टूटते रिश्ते कविता में रिश्तो के टूटने से मन मस्तिष्क में हुई हलचल को को इस प्रकार व्यक्त किया है।
टूटते हैं रिश्ते ,
तो चटकता है मन, उखड़ती हैं सांसें, लड़खड़ाता है तन।

वर्तमान कलयुग में मशीनों द्वारा प्रत्येक कार्य को तवज्जो देती हुई यह पंक्तियां देखें।

पृथ्वी पर दिल ना भरे तो, चांद- मंगल पर नजरें
गड़ाओ जी । ले कहां जा रहे हो हमें ? हे प्रभु कृपया इतना तो बताओ जी।

मिट्टी के दीये कविता में दीये बनाने में मग्न परिवार का यह वर्णन तो देखें ।

समय से पूर्व दिखती प्रौढ़ा, सूनी मांग, सूना जीवन । केवल एक नन्हा सा था फूल,
दूर-दूर तक फैले रेगिस्तान में।

इसके अलावा कवयित्री की कविताओं में राजनीति, भ्रष्टाचार और दीन-हीनों की दुर्दशा पर मन की खीझ और तड़प के साथ-साथ गहन प्यार में डूबने की कसक भी है। देश के प्रहरियों को कोटि-कोटि प्रणाम करते हुए कवयित्री की कलम ग्लैमर की ओर भागती तितलियों को साधारण नारी की महानता का संदेश देती और इस शरीर को नश्वर मानती हुई मोह माया के बंधन से दूर होते हुए आध्यात्मिकता का संदेश देने का एक सफल प्रयास कहा जा सकता है।

बोधि प्रकाशन जयपुर द्वारा प्रकाशित यह कविता संग्रह एक अच्छा कविता संग्रह साबित होगा। साहित्य जगत के पाठकों में इसका स्वागत होगा। ऐसी समीक्षक को आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है। कवयित्री के शब्द विन्यास और सरल स्टीक भाषा कविता संग्रह की एक बहुत ही बड़ी विशेषता है। इन्हीं विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए इस पुस्तक का मूल्य केवल मात्र ₹250 अधिक प्रतीत नहीं होता है।

गाँव मैहरी डा० नाल्टी जिला बिलासपुर (हि.प्र)

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