सुरभि न्यूज़ ब्यूरो
कुल्लू,13 नवंबर
भारत में आजादी का पहला मुक्ति आंदोलन 30 जून 1855 को शुरू हुआ था। भारत के स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई 1857 के दिनों से मानी जाती है परंतु आजादी की ज्वाला लोगों के दिलों में इससे पहले ही भड़क गईटी थी। आजादी के मुक्ति आंदोलन की शुरुआत 1855 में ही शुरू हो गई थी जिसने धीरे-धीरे बड़ा रूप धारण कर लिया। ब्रिटिश विदेशी और ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना राजनीतिक कब्जा समूचे भारत में जमाना शुरू कर दिया था तथा राजाओं, सेठों-साहूकारों, व्यापारियों तथा जमीदारों को अपने विश्वास में लेकर इनका शोषक बनाकर विदेशी शासन जबरदस्ती थोपने से आम जनता का जीवन यस व्यस्त हो गया था। यह शोषक ब्रिटिश सरकार के ऐसे हथियार बन गए थे कि इनके माध्यम से देसी समूह और आदिवासियों पर हर तरह से शोषण किया जाता रहा था।
ब्रिटिश हुकूमत तथा इन शासको से आखिर कब तक झुककर रहना था एक न एक दिन इस आजादी के लिए जंग तो शुरू होने ही थी। भारत में उस समय आदिवासियों की कई अपने परगने थे। ऐसा ही आदिवासी परगना संथाल बिहार के साहिबगंज जिले के भोगानडीह गांव में रहता था जो आजकल नए राज्य झारखंड में पड़ता है। यह आदिवासी संथाल परगना अंग्रेजों व शासको के दमन और शोषण का इतना शिकार हो गया था कि इस परगने को अंग्रेजों व शासको के विरुद्ध मुक्ति आंदोलन के लिए हथियार उठाना पड़ा। इसी कबीले में सिदो मुर्मू तथा कान्हू मुर्मू दो भाइयों के नेतृत्व में 30 जून 1855 को भारी संख्या में संथालों ने अंग्रेजों से लोहा लेने की शपथ लेकर अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया और आजादी के लिए मुक्ति आंदोलन की जंग अंग्रेजों से शुरू कर दी जो स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई मानी जाती है। 7 जुलाई 1855 को दोनों मुर्मू भाइयों को ब्रिटिश सरकार जब गिरफ्तार करने आई तो संथालों की उग्र भीड़ ने आए पुलिस अफसर तथा उसके साथ आए आदमियों को मौत के घाट उतार दिया। इस घटना से अंग्रेज शासको को बहुत बड़ा धक्का लगा। उन्हें इस तरह के विद्रोह की उम्मीद नहीं थी। इनका आजादी का संघर्ष भविष्य में भी चला रहा। शुरू-शुरू में आजादी की यह जंग काफी रंग लाई और अंग्रेजों के नाकों दम कर दिया। इन्होंने दक्षिण में रानीगंज और सौंथिया तक तथा पश्चिम में कोलगाग से पूर्व में राजमहल की पहाड़ियों तक अपना इलाका बना लिया। परंतु ब्रिटिश सरकार की विशाल फौजी के आगे यह परगना कब तक टिक पाता। आखिर संथालों की बलिदान, साहस व आजादी की शपथ को अंग्रेजों ने बेरहमी से तहस नहस कर दिया।
सिदो मुर्मू को अंग्रेज फौज ने धोखे से पकड़ लिया जबकि कान्हू मुर्मू को अपर बांदा में गिरफ्तार कर लिया। बाद में दोनों आजादी के महान सपूतों को अंग्रेजों ने हिरासत में के दौरान शहीद कर दिया। संथालों द्वारा आजादी की इस पहली लड़ाई ने सन 1857 के विद्रोह तक स्वतंत्रता संग्राम की मिसाल जलाई रखी। आज भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में इस आजादी के आंदोलन को (संथाल हल यानी कि मुक्ति आंदोलन 1855-1857) रूप में माना जाता है। आज भी सिदो मुर्मू और कान्हू मुर्मू दोनों महान सपूतों को आजादी आंदोलन में दिए गए अपने बलिदान के लिए याद किया जाता है। उल्लेखनीय है कि दोनों भाईयों का देश के लिए दिए गए बलिदान की याद में भारतीय डाक विभाग ने 6 अप्रैल 2002 उनकी याद में चार रुपए का डाक टिकट भी जारी किया गया, जिसमें दोनों के फोटो अंकित है जिन्हें भारत की पहली आजादी की लडाई का नायक माना जाता है।











