बरोटा रा आलू कने राज माह : प्रदेश व अन्य राज्य के लोग बरोट के आलू व राजमाह के थे कायल, अब नहीं रहा वह स्वाद

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सुरभि न्यूज़

खुशी राम ठाकुर, बरोट

छोटाभंगाल व चौहार घाटी में किसान पीढ़ी दर पीढ़ी सदियों से आलू की खेती करते आ रहे हैं। मगर गत कुछ वर्षों से आलू की फसल का उचित दाम न मिलने के कारण किसानों ने आलू की नगदी फसल को छोड़ कर अन्य सब्जियों को पैदा करना शुरू कर दिया है। दोनों क्षेत्रों में बीजा जाने वाला आलू अन्य राज्यों व प्रदेश में बीज के लिए बहुत प्रसिद्द होने के कारण आज भी मंडियों में अपनी पैंठ बरकरार रखे हुए हैं। मगर गत कुछ वर्षों से यहां के किसान आलू के उत्पादन को अलविदा कह कर अन्य फसलों की तरफ ज्यादा ध्यान दे रहे है।

किसानों का कहना है सरकार से कोई प्रोत्साहन न मिलने से आलू का उचित मूल्य नहीं मिल रहा है जिस कारण आलू को छोड़ कर अन्य सब्जियों फूल गोभी, बंद गोभी, मटर, राजमाह, मूली आदि नगदी फसलों को प्राथमिकता दे रहे हैं। दोनों क्षेत्रों में उगाया जाने वाला आलू (बरोट का आलू) के नाम से बहुत प्रशिद्ध है जिसकी मांग बिज के लिए बहुत ज्यादा रहती है। मगर (बरोट का आलू) का उत्पादन गत कुछ वर्षों से कम होता जा रहा है।

यहाँ के किसान आलू उत्पादन में हर वर्ष आ रही भारी गिरावट के लिए आलू की फसल में लगने वाली झुलसा जैसी कई बीमारियों को जिम्मेदार मान रहे हैं वहीँ उत्पादन व बिक्री के लिए सरकार व सम्बन्धित विभाग द्वारा उचित प्रबंधों का अभाव भी इसका मुख्य कारण बता रहे हैं। किसानों का कहना है कि तीन- चार दशक पूर्व इन क्षेत्रों में आलू की बम्पर फसल होती थी।

यहां के किसान उस समय मुख्यतः ढाँखरी, चन्द्र मुखी, कुफरी ज्योति, गोला व कुफरी गिरिराज किस्म के आलू की प्राकृतिक जैविक खेती करते थे जिसमें गोवर की खाद के अलावा किसी भी प्रकार की खाद का इस्तेमाल नहीं किया जाता था। आलू के साथ किसान राजमाह, मक्की व जौ की फसलें भी बहुत अधिक मात्रा में होती थी जिसकी मांग बहुत ज्यादा होती थी।

दोनों क्षेत्र का हर वर्ष हजारों टन बीज का आलू तथा खाने के लिए राजमाह प्रदेश के अन्य जिलो के अलावा पंजाब, हरियाणा व देहली के लिए भेजा जाता था। किसानों का कहना है कि उस समय आलू की फसलों में लगने वाली बिमारियों से बचाने के लिए सरकार द्वारा मुफ्त दवाइयां तथा स्प्रे उपलब्ध करवाई जाती थी तथा आलू की विभिन किस्मो को उगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था।

दोनों क्षेत्र के किसानों में वजिन्द्र सिंह, भागमल, विनोद कुमार, राज कुमार, मस्त राम, कर्म चंद, दान सिंह, प्यार चंद तथा डागी राम का कहना है कि पहले ढाँखरी किस्म का आलू भारी मात्रा में उगाया जाता था मगर कुछ वर्षों से आलू की नई किस्में आ जाने से ढाँखरी किस्म के आलू की फसल नहीं उगा पा रहे हैं।

गौरतलव है कि ढाँखरी किस्म का आलू अलग ही किस्म का होता है तथा इसका आकार सामान्य आलुओं से बड़ा होता है जो खाने में भी अधिक स्वादिष्ट होता है। हालांकि कई गाँवों में आज भी बहुत कम मात्रा में ढाँखरी किस्म का आलू उगाया जा रहा है।

किसानो का कहना है कि पुरानी किस्मों की प्राकृतिक जैविक खेती को छोड़कर अब आलू की कई नई किस्म की फसल कर रहे है जिनमे हर वर्ष कई बिमारिय लग रही है जिसके लिए खेतों में खादों व स्प्रे का अधिक मात्रा में उपयोग होने लगा है जिस कारण अब पुराने किस्म के आलू की तरह पहले जैसा स्वाद नहीं रहा न ही मार्किट में उतनी अधिक मांग रही है।

हालाँकि आलू व अन्य नगदी सब्जी की फसलों की पैदावार में इजाफा हुआ है ओर किसान अच्छा आर्थिक लाभ भी कमा रहे है मगर बरोट के आलू तथा राजमाह की मांग प्रदेश के अन्य जिलों तथा अन्य राज्यों में स्वादानुसार विशेष तौर रहती थी वह अब बहुत कम हो गई है।

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