सुरभि न्यूज़
प्रताप अरनोट, कुल्लू
हिमालय निति अभियान के अध्यक्ष और हिमालय बचाओ समिति के संस्थापक कुलभूषण उपमन्यु ने मिडिया को जानकारी देते हुए बताया कि हिमाचल सरकार से मांग की है की प्रदेश में वन अधिकार कानून को पूर्णतः लागू किया जाए।
इस कानून के अनुसार स्थानीय आदि वासी समुदायों और अन्य वन-निर्भर समुदायों को वनों पर सामुदायिक अधिकार और 13 जनवरी 2005 से पहले जिन जमीनों पर वे खेती करके आजीविका कमा रहे हैं या उन्होंने रहने का आवास या पशुशाळा बना रखी हो उन्हें उस भूमि पर इस्तेमाल का अधिकार दिया जाना है।
उपमन्यु ने खेद जताया कि 2008 में अधिसूचित किये गए कानून को इतने वर्ष बीत जाने के बाद तक लागू नहीं किया गया। हालांकि आदिवासी विकास विभाग के मंत्री जगत सिंह नेगी ने इस दिशा में अच्छी पहल करने का प्रयास शुरू किया है जिसकी सराहना करते हुए उपमन्यु ने वन अधिकार अधिनियम को समग्रता से लागू करने की मांग करते हुए कहा की सरकार को उच्च न्यायालय द्वारा वन भूमि से सभी कब्जा धारियों को बेदखल करने के आदेश के विषय में रास्ता निकालना चाहिए और न्यायालय में वन अधिकार क़ानून के आधार पर जवाब दायर करके पक्ष प्रस्तुत करना चाहिए कि वन अधिकार कानून विशेष क़ानून है जो वर्तमान सभी कानूनों पर वरीयता रखता है।
इसलिए जब तक वन अधिकार कानून को लागू करने की प्रक्रिया चल रही है तब तक वन भूमि और राजस्व भूमि पर 13 जनवरी 2005 से पहले के कब्जों को बेदखल करना उचित नहीं है। इसमें बहुत से मामले ऐसे भी हैं जो भाखड़ा और पोंग बांध के विस्थापित हैं, जिन्हें तत्कालीन सरकारों ने ही आसपास के जंगलों में बस जाने की बात कही थी।
बाद में उन्हें उस आश्वासन के आधार पर नौतोड़ भूमि देने का निर्णय भी हुआ, जिसके अंतर्गत कुछ विस्थापितों को नौतोड़ दिए भी गए किन्तु बहुत से छूट गए। इसके बाद 1976-77 में पांच बीघा भूमि सभी भूमि हीनों को देने का कार्यक्रम चला। कुछ जमीनों के पट्टे दिए गए और किसानों द्वारा कब्जे भी कर लिए गए किन्तु कुछ को जमीने बता दी गईं किन्तु कब्जे नहीं हुए या पट्टे भी नहीं मिल सके।
वे मामले अभी तक लटके हुए हैं क्योंकि 1980 वन संरक्षण अधिनियम पास हो गया जिसके चलते वन भूमि का किसी भी उद्देश्य के लिए उपयोग परिवर्तन पर रोक लगा दी गई। अत: उन लंबित मामलों में न्याय करने के लिए वन अधिकार कानून ही एक खिड़की प्रदान करता है जिसका उपयोग सरकार को करके न्याय स्थापित करने में पहल करनी चाहिए।
वैसे भी हिमाचल में 67% भूमि वन भूमि है, जिसके चलते स्थानीय निवासियों की बढती आबादी को केवल मात्र 10% कृषि भूमि पर आजीविका प्रदान करना आसान नहीं है। अत: वन अधिकार कानून को लागू करके ही समस्या का न्याय पूर्ण हल निकाला जा सकता है.