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जलवायु परिवर्तन, पहाड़ों की कटिंग और अवैज्ञानिक विकास ने बढ़ाई घाटी की नाजुकता।

कुल्लू जिला में टूट रहा है पहाड़ों का सब्र, नेशनल पार्क के अंदर साफ मौसम में हुआ भारी भूस्खलन।

प्रकृति बार-बार चेताती है, पर सीख नहीं ले रहे हैं इंसान।

सदियों पुराने ज्ञान को विज्ञान संग जोड़ने की जरूरत- डा. इरीना दास सरकार.

तीर्थन घाटी गुशेनी बंजार(परस राम भारती):- हिमाचल प्रदेश के जिला कुल्लू में पिछले कई सालों से मनाली, मणिकर्ण, बंजार, सैंज, आनी और तीर्थन घाटी घाटी में बड़ी-बड़ी प्राकृतिक आपदाएं जैसे बाढ़, भूस्खलन और बादल फटने की घटनाएँ हो रही हैं, जिसने आम लोगों का जीना मुश्किल कर दिया है। सड़कें टूट रही हैं, मकान ढह रहे हैं और खेती-बाड़ी का भी बड़ा नुकसान हो रहा है।

इन प्राकृतिक आपदाओं पर शोध करने वाली विशेषज्ञ डॉ. इरिना दास सरकार कहती हैं कि पहाड़ और नदियाँ बार-बार चेतावनी दे रही हैं, पर इंसान अब भी नहीं मान रहा। हम पहाड़ों को जैसे चाहे काट रहे हैं, नदी के बिलकुल पास घर बना रहे हैं और जंगल भी खत्म कर रहे हैं।

गत माह 10 नवंबर को तीर्थन घाटी के झनियार गांव में दिन के समय अचानक लगी आग ने बड़ी तबाही मचा दी। इस दुखद घटना में 16 रिहायशी मकान पूरी तरह जलकर खाक हो गए। गांव के लोग अभी इस सदमे से उबर भी नहीं पाए थे कि उसी रात करीब 7 किलोमीटर दूर, ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क के कोर ज़ोन उपरला बासु में एक और चिंताजनक घटना सामने आई।
बिलकुल साफ़ मौसम होने के बावजूद पहाड़ी जंगल का एक बहुत बड़ा हिस्सा अचानक खिसक गया। इस भूस्खलन की चपेट में सैकड़ों पेड़ आ गए, जो आने वाले बरसात के मौसम में भारी तबाही का कारण बन सकते हैं। बिना आबादी वाले क्षेत्र में, वह भी साफ़ मौसम में, इस तरह पहाड़ और जंगल का खिसकना प्रकृति की ओर से किसी गंभीर चेतावनी जैसा प्रतीत होता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे संकेतों को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। प्रशासन को चाहिए कि इस घटना का समय रहते गंभीरता से अवलोकन करे, ताकि भविष्य में संभावित बड़े नुकसान और किसी भी जान–माल की हानि से बचा जा सके।

2025 की बाढ़ सबसे बड़ी चेतावनी

इस साल की बाढ़ में कुल्लू जिला सबसे ज़्यादा प्रभावित हुआ। इस आपदा में 200 से ज़्यादा सड़कें टूट गईं, हजारों रिहायशी मकान ढह गए, कई बिजली परियोजनाएँ बंद हो गई और करोड़ों का नुकसान हुआ।

डॉ. इरिना बताती हैं कि अब पहले की अपेक्षा बर्फ कम पड़ रही है, ग्लेशियर पीछे जा रहे हैं और ऊपरी घाटियों में बड़ी-बड़ी झीलें बन रही हैं, जिनसे अचानक बाढ़ आने का खतरा और बढ़ गया है।

गलत तरीके से विकास ने बढ़ाया पहाड़ों का दर्द

डॉ. इरिना का कहना है कि हिमालय बहुत कोमल और युवा पहाड़ हैं। यहाँ पर ज्यादा कटाई-छंटाई सहन नहीं होती लेकिन हाल के वर्षों में सड़कों को चौड़ा करने और नई सड़कें बनाने के लिए तेज़ी से पहाड़ काटे गए, घर और दुकानें नदी किनारे बनाई जा रही है।

जिला कुल्लू में पर्यटन बढ़ने से पहाड़ों पर दबाव बहुत ज्यादा हो गया। बरसात होते ही कटे हुए ढलान नीचे खिसकने लगते हैं और बाढ़- भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है। लोग समझते हैं कि पहाड़ मजबूत हैं, पर इनका संतुलन बहुत नाज़ुक होता है।

पर्यटन के साथ-साथ खतरा भी बढ़ा

कुल्लू जिला की कमाई का बड़ा हिस्सा पर्यटन से आता है, पर तेज़ी से बन रहे होमस्टे, होटल और पार्किंग के कारण खेती वाली जमीन और ढलानों की मिट्टी पर बुरा असर पड़ा है।
पहले जहाँ खेत थे, वहाँ अब पक्का निर्माण हो गया है। पानी मिट्टी में समाने के बजाय सीधे नीचे तेज़ी से बह जाता है, जिससे खेत खलियान और के गाँव डूबने का खतरा बढ़ जाता है।

गांव का पुराना ज्ञान आज भी सबसे सटीक.

डॉ. इरिना कहती हैं
कि आज मशीनें या टेक्निलोजी मौसम बताती हैं, लेकिन गांव वालों के पारंपरिक तरीके कई बार उससे भी ज्यादा सही साबित होते हैं। गांव के लोग नदी के बहाव को देखकर ही कह देते हैं कि बाढ़ आ सकती है। वे पहचान लेते हैं कि
पानी का रंग बदलना, नदी में झाग उठना, कुत्तों और जानवरों का बेचैन होना, ऊपर पहाड़ों में अजीब तरह से बादल जमना, मेंढकों का मौसम से बाहर आवाज करना। ये सारी बातें आने वाली आपदा का संकेत देती हैं।

कुल्लू की काठ -कुनी बनावट सबसे मजबूत घर।

पहाड़ों में पुराने समय के काठ-कुनी शैली के घर मिट्टी,
पत्थर और लकड़ी से बनते हैं इसमें कंकरीट व लोहे का इस्तेमाल नहीं होता,
और ये भूकंप, बाढ़ और भारी बर्फबारी सब झेल लेते हैं।

वर्ष 2023-25 की आपदा में कई कंक्रीट के मकान ढह गए, लेकिन काठ-कुनी घर मजबूती से खड़े रहे। जिला के दूर दराज इलाकों में कुछ घर 800 साल से भी ज्यादा पुराने पाए गए हैं।

पवित्र वन देव भूमि की असली सुरक्षा दीवार।

कुल्लू के गाँवों में देवताओं के नाम से सुरक्षित रखे गए “पवित्र वन” आज भी मौजूद हैं। इन जंगलों को कोई काटता नहीं है।
इन्हीं जंगलों की वजह से पानी जमीन में समाता है,
ढलान मजबूत रहते हैं और बाढ़ का बहाव कम होता है।
ये जंगल प्राकृतिक “ढाल” की तरह काम करते हैं।

गांव की कहानियाँ भी बनती हैं जोखिम का नक्शा।
पुराने लोग जिस जगह को “बाढ़ वाली जगह” कहते थे, आज विज्ञान भी यह साबित कर रहा है कि वही जगह सबसे ज्यादा खतरे वाली है। कुल्लू में 1846 से 2020 तक की 128 बाढ़ घटनाओं का एक बड़ा रिकॉर्ड मिला है। ये घटनाएँ गाँव की कहानियों से मेल खाती हैं। इससे पता चलता है कि लोक-ज्ञान कितना मजबूत है।

डॉ. इरिना का कहना है कि अब कुल्लू के लोगों को तीन बातों पर ध्यान देना होगा कि
गाँवों का पुराना ज्ञान, मौखिक इतिहास और पारंपरिक अनुभव को भी सरकारी योजना में शामिल किया जाए। इसके साथ ही काठ कुनी घर, पवित्र वन और पहाड़ी खेती को सुरक्षित रखा जाए। इनका मानना है कि
वैज्ञानिक चेतावनियों, मौसम पूर्वानुमान और गांव वालों के अनुभव को मिलाकर एक नई सुरक्षा व्यवस्था बन सकती है।

डॉ. इरिना ने लोगों को संदेश दिया है कि कुल्लू के पहाड़ सब कुछ याद रखते हैं कि कहाँ नदी उफनी थी, कहाँ ढलान फिसले थे, और किन स्थानों ने पीढ़ियों को बचाया था। अब सवाल यह है कि क्या हमारी नीतियाँ और व्यवस्थाएँ भी इन पहाड़ों की स्मृति के साथ चलना सीख पाएँगी? जब तक विकास पहाड़ों की प्रकृति को समझकर नहीं किया जाएगा, तब तक आपदाएँ सिर्फ चेतावनी नहीं, बल्कि बड़ा नुकसान देती रहेंगी।

कौन हैं डॉ. इरिना दास सरकार?

डॉ. इरिना दास सरकार (Ph.D.) एक पारिस्थितिकी विशेषज्ञ हैं। यह पिछले 9 साल से ज़्यादा समय से भारत के अलग–अलग इलाकों में जंगल, पहाड़, नदियों और वहाँ रहने वाले जीव–जंतुओं पर काम कर रही हैं।
इनका काम यह समझना है कि प्रकृति कैसे काम करती है, मौसम और जलवायु में बदलाव का क्या असर पड़ता है और किस तरह गाँवों व स्थानीय लोगों का पारंपरिक ज्ञान प्रकृति को बचाने में मदद कर सकता है।

उन्होंने अपना डॉक्टरेट शोध हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले की तीर्थन घाटी गुशेनी में किया, जहाँ उन्होंने पहाड़ों की पारिस्थितिकी, भूभाग, मौसम और लोगों के जीवन के बीच के गहरे संबंधों को समझा। डॉ. इरिना के काम की खासियत यह है कि वह वैज्ञानिक अध्ययन को स्थानीय लोगों के अनुभव और ज्ञान के साथ जोड़कर समाधान ढूंढती हैं।
यही वजह है कि उनका शोध और सलाह दोनों ही पहाड़ी क्षेत्रों के विकास और पर्यावरण संरक्षण के लिए बहुत उपयोगी माने जाते हैं।

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