रिश्तों का एटीएम – जब प्यार केवल ट्रांज़ैक्शन बन जाए

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सुरभि न्यूज़

डॉ सत्यवान सौरभ : भिवानी, हरियाणा

रिश्ते अब महज़ ज़रूरतों के एटीएम बनते जा रहे हैं। डिजिटल दुनिया ने संवाद को ‘रीचार्ज पैकेज’ और मुलाक़ातों को ‘होम-डिलीवरी’ में बदल दिया है। दिलचस्पी कम होते ही लगाव की नींव दरकने लगती है—माँ-बेटे के फ़ोन-कॉल में ‘ऑर्डर डिलिवर्ड’ का नोटिफ़िकेशन रह जाता है, दोस्ती ‘वीडियो क्लिप फ़ॉरवर्ड’ तक सिमट जाती है, और दाम्पत्य ‘शॉपिंग-लिस्ट’ में उलझ जाता है। यह लेख बताता है कि क्यों रिश्ते औपचारिकता के जाल में फँसते हैं, इसके नतीजे क्या हैं, और दिलचस्पी को फिर से जीवित रखने के व्यावहारिक, संवेदनशील उपाय कौन-से हैं—ताकि प्यार अनलिमिटेड रहे, केवल टॉप-अप नहीं।

पिछली सदी में साइकिल की घंटी, साँझ की चौपाल, या आँगन का पीपल रिश्तों की धड़कन थे। किसी के दरवाज़े पर दो बार दस्तक हुई तो मतलब साफ़ था—चाय पकाओ, गपशप होने वाली है। आज दरवाज़ा कम बजता है, मोबाइल ज़्यादा। और मोबाइल भी कई बार हाथ में नहीं, डाइनिंग-टेबल पर पड़ा-पड़ा नोटिफ़िकेशन बजाता है—“पैकेज आउट फ़ॉर डिलिवरी।”

हमारी दिनचर्या इतनी एप-आधारित हो चुकी है कि रिश्ते भी ‘ऑन-डिमांड सर्विस’ जैसा अनुभव देने लगे हैं। माँ की याद तब आती है जब ‘घर का अचार’ ख़त्म हो जाता है; भाई का नाम फोन-बुक में तभी स्क्रोल होता है जब ट्रैफ़िक चालान से बचने के लिए किसी कनेक्शन की दरकार होती है; कॉलेज के दोस्त तभी पिंग करते हैं जब उन्हें किसी रेफ़रेंस लेटर की ज़रूरत पड़ती है। “दिलचस्पी” दिन-दहाड़े ग़ायब हो चुकी है, और हमने गुमशुदगी की रिपोर्ट भी नहीं लिखवाई; क्यों? क्योंकि हमारी ज़रूरतें आराम से पूरी हो रही हैं।

ज़रूरत और दिलचस्पी का द्वंद्व

ज़रूरतें बुरी नहीं हैं। पानी, भोजन, सुरक्षा, सहारा—ये सब एक बुनियादी सच हैं। समस्या तब शुरू होती है जब रिश्तों की पूरी परिभाषा ही ज़रूरतों पर टिक जाती है। प्यार, आदर, साझा हँसी, बेवजह के मेसेज—ये सब ‘लक्सरी आइटम’ माने जाने लगते हैं। नतीजा? संवाद सूखता है, उत्साह मुरझाता है, और रिश्ता अपनी ही परछाईं ढोता रहता है।

“कैसे हो?” का जवाब कभी ताल्लुक निभाने के लिए था; अब यह कस्टमर-केयर का स्क्रिप्टेड सवाल लगने लगा है। जोश, जिज्ञासा और जुड़ाव, एक-एक कर सिकुड़ते हैं। दिलचस्पी ‘टॉप-अप’ की तरह है—समय-समय पर न हो तो सर्विस बंद। पर हम अकसर इसे भूल जाते हैं और फिर हैरान होते हैं कि नेटवर्क क्यों नहीं आ रहा।

आधुनिकता के चार कड़वे साइड-इफ़ेक्ट

1. डिजिटल पुल और भावनात्मक दूरी
हम ‘कनेक्टेड’ तो हैं, पर ‘क्लोज़’ नहीं। विडंबना देखिए—वीडियो-कॉल करते हुए भी हम आँखों में आँखें नहीं देख पाते, क्योंकि कैमरा स्क्रीन के ठीक बगल में है।

2. समय का निवेश नहीं, आउटसोर्सिंग का चलन
जन्मदिन का केक, सालगिरह का तोहफ़ा, माँ के घुटनों की दवाई—सब ‘एप सेकेंड’ में बुक। व्यक्तिगत श्रम की जगह ‘प्रोसेस्ड केयर’ ने ली; एहसान की जगह ‘ट्रैकिंग आईडी’।

3. पर्सनल ब्रांडिंग का दबाव
रिश्ते अब फ़ोटो-फ़्रेंडली मोमेंट्स का कोलाज हैं। रीयलिटी में खिलखिलाना कम है, सोशल फ़ीड में ‘स्टोरी’ ज़्यादा। हर मुलाक़ात एक संभावित पोस्ट है—और पोस्ट अगर लाइक्स न बटोर पाए तो दोस्ती में भी ‘कंटेंट वैल्यू’ कम आँकी जाती है।

4. उपभोक्तावाद का शोर
मार्केटिंग ने हमें सिखाया—संतुष्टि ख़रीदी जा सकती है। नतीजे में हम रिश्तों से भी रिटर्न-ऑन-इन्वेस्टमेंट चाहने लगे: “मैंने दादी को विंटर जैकेट भेजा, बदले में वीडियो कॉल तक नहीं मिला।” जैसे स्नेह कोई कैश-बैक स्कीम हो।

समाजशास्त्रीय नज़रिया

समाजशास्त्री बताते हैं कि औद्योगिक क्रांति से लेकर आईटी क्रांति तक, जैसे-जैसे जॉइंट फ़ैमिली से न्यूक्लियर फ़ैमिली की ओर झुकाव बढ़ा, ज़िम्मेदारियाँ तो विभाजित हुईं पर समर्थन-तंत्र भी बिखर गया। अब हर इकाई अपने दम पर दौड़ रही है, इसलिए “सर्वाइवल” सर्वोच्च प्राथमिकता बन गया। दिलचस्पी एक ‘नॉन-एसेंशियल अमीनीटी’ की तरह अंत में जुड़ती है, अगर शक्ति और समय बचा तो।

मानसिक स्वास्थ्य पर असर

इंसान सामाजिक प्राणी है—यह पाठ चौथी कक्षा की किताब में पढ़ाया जाता है, पर समाज की चकाचौंध में अक्सर छूट जाता है कि भावनात्मक संबंध ऑक्सीजन की तरह हैं। लगातार “फ़ंक्शनल” रिश्ते (जहाँ बस लेन-देन हो) अवसाद, तनाव, और एकाकीपन को बढ़ाते हैं। शेयर मार्केट की भाषा में कहें तो “इमोशनल डिविडेंड” गिरने लगता है, और इनसानी ‘निवेशक’ धीरे-धीरे हताश हो जाता है।

दिलचस्पी बचाने के पाँच व्यावहारिक मंत्र

1. शारीरिक उपस्थिति का महत्व
महीने में कम से कम एक बार बिना किसी ‘कारण’ के मिलने जाएँ। डिजिटल मीटिंग काम की है, पर ‘अनप्लग्ड’ साथ का स्वाद कुछ और होता है।

2. अनुस्मृति के छोटे बीज
पुराने फ़ोटो प्रिंट कर फ्रिज पर लगाएँ, हाथ से लिखे नोट्स भेजें। टच का स्पर्श हमेशा स्क्रीन से गहरा होता है।

3. साझा अनुष्ठान बनाएँ
चाहे रविवार की दोपहर की खिचड़ी हो या हर पूर्णिमा पर चाँद देखना—एक छोटा-सा रिवाज़ रिश्ते का ‘रिकरिंग डिपॉज़िट’ है।

4. डिजिटल डिटॉक्स स्लॉट
परिवार या मित्रों के साथ जब भी हों, फोन ‘डिस्टर्ब’ मोड में डालें। पाँच में से दो मुलाक़ातें भी यूँ हो जाएँ तो दिलचस्पी की बैटरी चार्ज रहती है।

5. शब्दों का आदान-प्रदान
“मुझे तुम पर गर्व है”, “आज तुम्हारी याद आई”, “चलो पुराने गाने सुनते हैं”—ऐसे वाक्य बोनस अंक देते हैं। ज़रूरी नहीं कि मुद्दा भारी-भरकम हो; भावना हल्की-सी हो पर ईमानदार हो।

व्यंग्य के सहारे सत्य

कल्पना कीजिए, अगर रिश्तों का भी ‘यूज़र अग्रीमेंट’ होता:> “मैं, फलाँ-फलाँ, यह स्वीकार करता/करती हूँ कि मैं केवल अपने लाभ के लिए आपको याद करूँगा/करूँगी; अगर दिलचस्पी घटे तो ‘अनसब्स्क्राइब’ कर दूँगा/दूँगी; और शिकायत करने पर ‘कस्टमर सपोर्ट’ को ई-मेल करूँगा।”

सुनने में हास्यास्पद लग सकता है, पर व्यवहार में हम अक्सर यही तो करते हैं! ग़ुस्सा आए तो ‘ब्लॉक’; हँसी आए तो ‘रिएक्ट’; उदासी आए तो ‘म्यूट’। मानो इंसान नहीं, नोटिफ़िकेशन हों—जिन्हें स्लाइड करके साइड में किया जा सकता है।

निष्कर्ष: दिलचस्पी का पुनर्जन्म

रिश्ते खेत की मिट्टी जैसे हैं—नीम-हफ़्ते पानी दो, बीज पनपेंगे; वरना बंजर हो जाएगा। आधुनिकता की रफ्तार हमें मुट्ठी-भर समय भी नहीं छोड़ती, पर उसी मुट्ठी में कुछ बीजों की ज़रूरत है।

जब अगली बार आप किसी प्रियजन का नंबर डायल करें, सोचें—क्या मैं केवल मदद माँगने जा रहा हूँ? अगर हाँ, तो कॉल से पहले एक साधारण-सा मैसेज भी जोड़ दें—“तुम्हारी हँसी याद आई।” हो सकता है, ऐसे छोटे-से वाक्य से बातचीत का पूरा मौसम बदल जाए।

रिश्तों की दुकान में दिलचस्पी कीमत नहीं, करंसी है। अगर वही ख़त्म हो जाए, तो सबसे महँगा तोहफ़ा भी ख़रीदा नहीं जा सकता। इसलिए आज ही थोड़ा निवेश दिलचस्पी में कीजिए; रिटर्न यक़ीनन इनफ़्लेशन-प्रूफ़ मिलेगा—प्यार, अपनापन, और वह अनकही मुस्कान जो स्क्रीन के इस पार भी महसूस होती है।

कहावत है—“घर वही जहाँ दिल हो।” पर दिल वहीं टिकता है जहाँ दिलचस्पी हो। ज़रूरतें पूरी कीजिए, पर उन्हें प्यार का ‘ब्रेक-अप लेटर’ बनने मत दीजिए। याद रखिए, रिश्तों का असली चार्जर दिलचस्पी ही है; वरना कनेक्शन ‘नो-सर्विस’ दिखाने लगता है—और तब, डेटा पैक बढ़ा कर भी सिग्नल नहीं आएगा।

2 Comments

  1. पिछले समय में रिश्ते इतने प्राकृतिक और भावनात्मक होते थे, लेकिन अब वे केवल ज़रूरतों के आधार पर ही निभाए जाते हैं। मोबाइल और टेक्नोलॉजी के इस युग में हमने अपने रिश्तों को भी ‘सर्विस’ की तरह देखना शुरू कर दिया है। भावनाएँ और जुड़ाव अब लग्ज़री आइटम बन गए हैं, जो केवल समय और स्थिति के अनुसार प्रयोग किए जाते हैं। यह चिंताजनक है कि हमने अपने रिश्तों को इतना यांत्रिक बना दिया है। क्या हमारे लिए रिश्ते अब सिर्फ़ ज़रूरतों को पूरा करने का साधन मात्र रह गए हैं? Given the growing economic instability due to the events in the Middle East, many businesses are looking for guaranteed fast and secure payment solutions. Recently, I came across LiberSave (LS) — they promise instant bank transfers with no chargebacks or card verification. It says integration takes 5 minutes and is already being tested in Israel and the UAE. Has anyone actually checked how this works in crisis conditions?

  2. आज के समय में रिश्ते सिर्फ जरूरतों के आधार पर चलने लगे हैं। पहले जहां बिना किसी मतलब के लोग मिलते थे, वहीं अब हर बात में एक उद्देश्य छिपा होता है। मोबाइल और तकनीक ने हमें जोड़ा है, लेकिन भावनात्मक दूरियां बढ़ा दी हैं। क्या हम वाकई इन रिश्तों को बचा पाएंगे, या यह सिर्फ एक औपचारिकता बनकर रह जाएगा? German news in Russian (новости Германии)— quirky, bold, and hypnotically captivating. Like a telegram from a parallel Europe. Care to take a peek?

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